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लाचित बोड़फुकन (Lachit Borphukan)

लाचित बोड़फुकनlachit Borphukan) का नाम असम के इतिहास में बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। इन्हें अपनी वीरता और कुशल नेतृत्व क्षमता के लिए याद किया जाता है। लाचित अहोम साम्राज्य के सेनापति और बोड़फुकन थे। सराईघाट की लड़ाई (1671 ई.) में इन्होंने बेहतरीन सूझबूझ का परिचय दिया था। इन्होंने कामरूप पर पुनः अधिकार प्राप्त करने के लिए रामसिंह प्रथम के नेतृत्व वाली मुग़ल सेनाओं का प्रयास विफल कर दिया गया था।

परिचय
लाचित बोड़फुकन, मोमाई तामुली बोड़बरुआ के पुत्र थे, जो कि प्रताप सिंह के शासन-काल में पहले बोड़बरुआ थे। लाचित बोड़फुकन ने मानविकी, शास्त्र और सैन्य कौशल की शिक्षा प्राप्त की थी। उन्हें अहोम स्वर्गदेव के ध्वज वाहक का पद सौंपा गया था,

जो कि किसी महत्वाकांक्षी कूटनीतिज्ञ या राजनेता के लिए पहला महत्वपूर्ण कदम माना जाता था। बोड़फुकन के रूप में अपनी नियुक्ति से पूर्व लाचित अहोम राजा चक्रध्वज सिंह की शाही घुड़साल के अधीक्षक, रणनैतिक रूप से महत्वपूर्ण सिमुलगढ़ किले के प्रमुख और शाही घुड़सवार रक्षक दल के अधीक्षक के पदों पर आसीन रहे थे।

राजा चक्रध्वज ने गुवाहाटी के शासक मुग़लों के विरुद्ध अभियान में सेना का नेतृत्व करने के लिए लाचित बोड़फुकन का चयन किया। राजा ने उपहारस्वरूप लाचित को सोने की मूठ वाली एक तलवार और विशिष्टता के प्रतीक पारंपरिक वस्त्र प्रदान किए थे। लाचित ने सेना एकत्रित की और 1667 ई. की गर्मियों तक तैयारियां पूरी कर लीं गईं।

लाचित ने मुग़लों के कब्ज़े से गुवाहाटी को पुनः प्राप्त कर लिया और सराईघाट की लड़ाई में वे इसकी रक्षा करने में सफल रहे। सराईघाट की विजय के लगभग एक वर्ष बाद प्राकृतिक कारणों से लाचित बोड़फुकन की मृत्यु हो गई। उनका मृत शरीर जोरहाट से 16 किमी दूर हूलुंगपारा में स्वर्गदेव उदयादित्य सिंह द्वारा सन 1672 में निर्मित लचित स्मारक में विश्राम कर रहा है।

लाचित बोड़फुकन का कोई चित्र उपलब्ध नहीं है, लेकिन एक पुराना इतिवृत्त उनका वर्णन इस प्रकार करता है, “उनका मुख चौड़ा है और पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह दिखाई देता है। कोई भी उनके चेहरे की ओर आँख उठाकर नहीं देख सकता।”

सराईघाट का युद्ध
लाचित और उनकी सेना द्वारा पराजित होने के बाद, मुग़ल सेना ब्रह्मपुत्र नदी के रास्ते ढाका से असम की ओर चली और गुवाहाटी की ओर बढ़ने लगीं। रामसिंह के नेतृत्व वाली मुग़ल सेना में 30,000 पैदल, 15,000 तीरंदाज़, 18,000 तुर्की घुड़सवार, 5,000 बंदूकची और 1,000 से अधिक तोपों के अलावा नौकाओं का विशाल बेड़ा था।

लड़ाई के पहले चरण में मुग़ल सेनापति रामसिंह असमिया सेना के विरुद्ध कोई भी सफलता पाने में विफल रहा। रामसिंह के एक पत्र के साथ अहोम शिविर की ओर एक तीर छोड़ा गया, जिसमें लिखा था कि लाचित को एक लाख रुपये दिये गये थे और इसलिए उसे गुवाहाटी छोड़कर चले जाना चाहिए। यह पत्र अंततः अहोम राजा चक्रध्वज सिंह के पास पहुंचा। यद्यपि राजा को लाचित की निष्ठा और देशभक्ति पर संदेह होने लगा था, लेकिन उनके प्रधानमंत्री अतन बुड़गोहेन ने राजा को समझाया कि यह लाचित के विरुद्ध एक चाल है।

सराईघाट की लड़ाई के अंतिम चरण में, जब मुग़लों ने सराईघाट में नदी से आक्रमण किया, तो असमिया सैनिक लड़ने की इच्छा खोने लगे। कुछ सैनिक पीछे हट गए। यद्यपि लाचित गंभीर रूप से बीमार थे, फिर भी वे एक नाव में सवार हुए और सात नावों के साथ मुग़ल बेड़े की ओर बढ़े।

उन्होंने सैनिकों से कहा, “यदि आप भागना चाहते हैं, तो भाग जाएं। महाराज ने मुझे एक कार्य सौंपा है और मैं इसे अच्छी तरह पूरा करूंगा। मुग़लों को मुझे बंदी बनाकर ले जाने दीजिए। आप महाराज को सूचित कीजिएगा कि उनके सेनाध्यक्ष ने उनके आदेश का पालन करते हुए अच्छी तरह युद्ध किया। उनके सैनिक लामबंद हो गए और ब्रह्मपुत्र नदी में एक भीषण युद्ध हुआ। लाचित बोड़फुकन विजयी हुए।

मुग़ल सेनाएं गुवाहाटी से पीछे हट गईं। मुग़ल सेनापति ने अहोम सैनिकों और अहोम सेनापति लाचित बोड़फुकन के हाथों अपनी पराजय स्वीकार करते हुए लिखा, “महाराज की जय हो! सलाहकारों की जय हो! सेनानायकों की जय हो! देश की जय हो! केवल एक ही व्यक्ति सभी शक्तियों का नेतृत्व करता है! यहां तक ​​कि मैं रामसिंह, व्यक्तिगत रूप से युद्ध-स्थल पर उपस्थित होते हुए भी, कोई कमी या कोई अवसर नहीं ढूंढ सका।”

लाचित दिवस


लाचित बोड़फुकन के पराक्रम और सराईघाट की लड़ाई में असमिया सेना की विजय का स्मरण करने के लिए संपूर्ण असम में प्रति वर्ष 24 नवम्बर को ‘लाचित दिवस’ मनाया जाता है। ‘राष्ट्रीय रक्षा अकादमी’ के सर्वश्रेष्ठ कैडेट को ‘लाचित मैडल’ से सम्मानित किया जाता है, जिसका नाम लाचित बोड़फुकन के नाम पर रखा गया है।